मानव सुख की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है, लेकिन वह अपने मन में झांक कर नहीं देखता। जबकि मनुष्य के मन में ही सुख का सागर होता है।भ्रमित मानव भौतिक सुख पाने के लिए सांसारिक वस्तुओं के पीछे तो अंधा होकर भाग रहा है और आध्यात्मिक सुख से विमुख होता जा रहा है जो कि उसके दुख का असल कारण है। संसार में जिस मानव के पास सभी सुख सुविधाएं है वह भी सुखी नहीं है। सुख केवल भगवान के शरणागत होने पर ही मिलता है। आत्मिक शांति सुविधाओं से नहीं बल्कि प्रभु चरणों में मन लगाने से मिलती है।
तेजस्वीता + तपस्वीता + तत्परता = पुष्टि युवा. _________गो.हरिराय..
Tuesday, March 9, 2010
'' सुखस्य मूलं धर्मः ''
मानव सुख की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है, लेकिन वह अपने मन में झांक कर नहीं देखता। जबकि मनुष्य के मन में ही सुख का सागर होता है।भ्रमित मानव भौतिक सुख पाने के लिए सांसारिक वस्तुओं के पीछे तो अंधा होकर भाग रहा है और आध्यात्मिक सुख से विमुख होता जा रहा है जो कि उसके दुख का असल कारण है। संसार में जिस मानव के पास सभी सुख सुविधाएं है वह भी सुखी नहीं है। सुख केवल भगवान के शरणागत होने पर ही मिलता है। आत्मिक शांति सुविधाओं से नहीं बल्कि प्रभु चरणों में मन लगाने से मिलती है।
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जय श्री कृष्ण
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